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सोमवार, 30 जुलाई 2012



खुली आँखों में सपना झांकता है
वो सोया है कि कुछ कुछ जागता है

तेरी चाहत के भीगे जंगलों में
मेरा मन मोर बन कर नाचता है

मुझे हर कैफियत में क्यों ना समझे
वो मेरे सब हवाले जानता है

मै उसकी दस्तरस में हूँ मगर वह
मुझे मेरी रज़ा से मांगता है

किसी के ध्यान में डूबा हुआ दिल
बहाने से मुझे भी टालता है

सड़क को छोड़ कर चलना पडेगा
कि मेरे घर का कच्चा रास्ता है.
                                                     - परवीन शाकिर

5 टिप्‍पणियां:

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

किसी के ध्यान में डूबा हुआ दिल
बहाने से मुझे भी टालता है
जी ....ये मुकाम भी आता है.... बढ़िया पंक्तियाँ ....पढवाने का आभार

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…




मै उसकी दस्तरस में हूँ मगर वह
मुझे मेरी रज़ा से मांगता है

वाह वाऽऽह ! यही तो है सच्ची मुहब्बत !

बहुत ख़ूबसूरत …
लोरी अली जी
नमस्कार !

परवीन शाकिर की इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए शुक्रिया !

आते रहना पड़ेगा आपके यहां …

हार्दिक शुभकामनाएं !

मंगलकामनाओं सहित…

-राजेन्द्र स्वर्णकार

zindgi ने कहा…

लिल्लाह ! चाँद.
"चाँद की चाहत, देखो कैसे भोले दिल को ले बैठी
मन का बचपन चाँद ही मांगे, जैसे एक खिलौना चाँद....."

Narendra Mourya ने कहा…

परवीन शाकिर की यह गजल जितनी बार पढ़ो नई ही लगती है। आपका ब्लाग भी क्या खूब है। एक से बढ़कर एक रचनाएं। बधाई और शुभकामनाएं।

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ ने कहा…

लोरी,
इत्ती लम्बी ईद!
खैर, पढ़ी-लिखी सी रचना है ये... मैं अभी इस क्लास में नहीं पहुंचा!

और आपकी दिल्लगी! क्या कहने!!!
शेक्सपियर याद आ गए! ज़रूर बेचैनी की करवट ली होगी हज़रत ने कब्र में!

खुश रहिये!
ढ़