www.hamarivani.com

सोमवार, 20 जनवरी 2014

इश्क़ की दास्तान है प्यारे....



        क्वीन्स - नैकलेस से कोहे- फ़िज़ा तक का रास्ता उसने बड़ी बेज़ारी से तय किया।  घर में दाखिल हुई तो राहदारी में खिले अपने पसंदीदा फूलों पर एक नज़र भी नहीं डाली। तड़ाक फड़ाक गेट खोल , बिना किसी से बात किये, सीधे अपने कमरे में दाख़िल।  हैल्मेट  उतारा तो ख़ूबसूरत  बालों की अलकें तड़प कर उसके मासूम चेहरे पर बिखर आयीं।  मैं जो डाइनिंग  टेबल पर बैठी सूप गटक रही थी और उसके मिजाज़ से ख़ूब  वाक़िफ़ थी, उसके इस वालिहाना  अन्दाज़  पर हैरत से उठ कर उसके पीछे पीछे चली आयी, दिल ही दिल में घबराती सी।  बज़ाहिर मुतमईन दिखने में मेरा भी कोई सानी नही.  " क्या हुआ भई !" मैंने मुस्कुराते हुए पूछा। 
 
        ओह मेरे रब जी ! उसके चेहरे पर नज़र पड़ते ही मेरे हवास क़ाबू में नहीं रहे।  गोरा चेहरा , घबराहट से सुर्ख हो रहा था, लाल भभूका ! शायद बहुत रोई हो। चेहरे पर हल्की सूजन रोने  की ही तो अलामत है, आँखे ज़ार ज़ार पनीली हो  दर्द की शिद्दत बयान कर रहीं थीं।  और तकिये में मुँह छिपाए वह आने रब से बेइन्तेहाँ शिकवा कर रही थी "   रब्बा ! तू मेरे ही साथ ऐसा क्यों करता है, मालिक! मेरी क्या ख़ता  थी!  जवाज़ से मंगनी भी इसलिए टूटी कि वह अज़रा को मोहब्ब्त करता था; अनवर और अफ्शां  का झगड़ा भी इसलिए हुआ कि उन्हें लगा कि मै  उनके बीच आ रही हूँ; और अब ये!  …… मैंने कब मोहब्ब्त करने वालों के बीच आना चाहा था.…… " वह सिसक रही थी।
हाई ओ रब्बा ! मेरी तो धड़कने  ही रुक गयी! जिसका डर था वही हुआ, यहाँ तो इसे मोहब्बत भी हो गयी और वह इसे छोड़ कर चला भी गया और इधर हमारे देव को भी ख़बर नहीं ! हाय ये मेरी बेबस बुलबुल !!! बुरा हुआ, बहुत बुरा  ....... मैं  एक बेबस बन्दे की तरह आसमान के तरफ देख अल्लाह का आसरा करने लगी। अब क्या करुँ ! मिनी, रज़िया आलिया , नीना , फ़ैज़ी सबको फोन लगा दिया, बेचारी की तबियत तो बहलेगी, वरना उस कम्बख्त की यादें तो फूल सी बच्ची  की जान ही ले लेंगीं।  तब  मैं  कहूँ बेगम बार बार शादी के लिए न क्यों कर देती है! 


        सब सहेलियों ने मौक़े की नज़ाकत और मस'ले  की संजीदगी को समझा, सब की सब तुरत-फुरत हाज़िर।ऐसे मौक़े पर हम नहीं तो कौन सहारा देगा अर्शी को! कितना बुरा इंसान होगा वह! मैं सोंच ही रही थी कि राहदारी की आवाज़ों ने मेरे कान खड़े कर दिये , " कम्बख्त का नास जाये , बुरा हो मनहूस-मारे का! " सच तो है , सही तो कह रहीं हैं सब ! 

वह सब अर्शी के कमरे में जा उसे सँभालने में लग गयीं; किसी ने ज़बर्दस्ती मुँह धुलाया, किसी ने पानी पिलाया। " आलिया! ज़रा अलमारी से वह एलोवेरा पैक उठा दो!" अर्शी जब सँभली , उसके मुँह  से निकला। शुक्र है, सम्भली तो! मरने दो उसे! हमारी अर्शी के लिए कोई कमी है क्या लड़कों की!

 
मैं  सब के लिए चाय- पानी का बंदोबस्त करने चली गयी।  

" वैसे हमारी नॉलेज  के बाहर ये तुझे मिला कहाँ! "  मिनी ने धीरे से तब्सिरा किया। 

" कौन ?"   अर्शी पैक लगाते लगाते धीरे से चौंकी 

" अरे वही! जिसके इश्क़ ने ऐसा हाल बना दिया " फ़ैज़ी बोली . 

"दिमाग तो ख़राब नहीं हो गया तुम्हारा!" उसने सबको झिड़का.
 
"हाँ! आपी ने फोन लगा कर तो बिल्कुल  यही कहा था!" सब की सब एक साथ बोलीं. 

मेरे चाय लेजाते क़दम परदे की औंट  हो गए 

" ओह्ह !  मुझे  नहीं! किसी और को इश्क़ हुआ, और मुझे सजा मिली "
 
  वह तफ़सीर बयान करने लगी, " एक ततैया  और उसकी माशूक़ हवा में इश्क़ फरमाते हुए मेरे सर से टकराए. आशिक़ ज़्यादा रोमेंटिक होने लगा तो शरमा कर माशूक़ ने मेरे हैल्मेट  में पनाह ले ली।  अब घुस तो गयी, अपनी मारी किस्से कहे , कम्बख्त बाहर निकलने को जगह तलाशती  काटती रही अंदर. काट काट  कर मुँह  सुजा दिया; इधर आशिक़ साहब हैल्मेट  के आसपास मंडराते , बोले जा रहे थे, 'बसन्ती ! मैं आ रहा हूँ',  और सच्चे आशिक़ ने घर तक पीछा नहीं छोड़ा ! घर आकर हैलमेट निकला तो घायल माशूक खिड़की की तरफ़ उड़ी, और आशिक़ ने भी एक किस कर मेरा पीछा छोड़ा। ."
ये आपी भी ना ! कहानियाँ  बना डालतीं हैं ……. 
  
 सब की सब हैरतज़दा,  खिड़की के पल्ले पर रोमांस करते ततैया के जोड़े को घूर रहीं थी, और मैं! सोच रही थी " शुक्र है अर्शी को इश्क़ नही हुआ.."      
     
 

शनिवार, 4 जनवरी 2014

घर जाने का मौसम






 मोहब्बत जब लहू  बन कर
रगों में सरसराये तो 
कोई भूला हुआ चेहरा 
अचानक याद आये तो
क़दम मुश्किल से उठते हों 
इरादा डगमगाए तो 
कोई मद्धम से लहजे में 
तुम्हे वापिस बुलाये तो 
ठहर जाना, समझ लेना 
कि अब वापिस पलटने का 
अमल आग़ाज़ होता है

कभी तन्हाइयों का दर्द 
आँखों में समाये तो 
कोई लम्हा गुज़िश्ता चाहतों का 
जब सताये तो 
किसी की याद में रोना 
तुम्हे भी खूब आये तो 
अगर तुमसे तुम्हारा दिल 
किसी दिन रूठ जाये तो 
ठहर जाना, समझ लेना 
कि अब वापिस पलटने का 
अमल आग़ाज़ होता है

कभी अनहोनियों का डर 
परिंदों को उड़ाये तो 
हवा जब पेड़ से एक ज़र्द सा पत्ता गिराए तो 
ठहर जाना, समझ लेना कि 
अब वापिस पलटने का अमल आगाज़ होता है 
                                     -अनजान 
                                  प्रस्तुति : लोरी अली