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शुक्रवार, 22 अगस्त 2014

मोहब्बत बरसा देना तुम, सावन आया है …।


               " बस भी करो यार! तुम्हारे बगैर हम क्या मज़े करें!! " उसने तुनकते हुए कॉल डिस्कनेक्ट की और गुस्से में लाल भभूका मुँह करते हुए, खिड़की के पल्ले से जा लगी. बेवजह सारा गुस्सा, अगस्त के सूरज को कोसने में लगा दिया, " कमबख्त  सारा पानी सोंख कर पता नहीं अपनी अम्मा को पिलाएगा या क्या! " और ये गर्मी ये गर्मी ! यह उमस!! और और यह पसीना!!! उसने गुस्से में पावों की सैंडल निकाल ड्राइंग रूम के कांच को निशाना बनाया।  

               "बस तो करिये भाभी ! हम लोग इस गर्मी के आदी  हैं, क्या  हो गया है आपको !"
ज़ीशान बाथरूम से बाहर आ सिर्फ इतना बोल कर यों  खिसका मानो , ज़्यादा  बोलने पर टैक्स लगता हो. 

                 अर्शी कुछ न बोली , दूसरी सैंडल निकाल उसके जाते ही, बंद होते दरवाज़े पर दे मारी।  क्या जवाब देगी बच्चों को! कैसे कहेगी छह महीनों से जो वादा किया जा रहा था, वह महज़ सब्ज़बाग था ! आरिश  तो मान लेगा पर अना  तो मचल ही जाएगी।  अल्लाह! क्या सीखेंगे ये बच्चे अपने बाप से! " फर्स्ट डे- फर्स्ट शो "  जाने कब से चिल्ला रहे थे, आज फिल्म रिलीज़ हुई और 
मियाँजान को ऑफिस का काम निकल पड़ा  कितने दिन से बच्चे सोंच,रहे थे " ये होगा, वह होगा।" अब क्या जवाब देगी बच्चों को! और सबसे बुरी तो बेचारी खुद उस पर ही बीती, कल पार्लर गई थी, आज जतन से तैयार हुई, मिया मोहब्बत से तकते हुए बोले, " जान!  बॉस का फोन है , बस यूँ गया यूँ आया"  दिल तो धड़ाक से ऐसे बैठा था, जैसे बॉस न हुआ सास हो गई. 

अब! अल्लाह, बच्चों की तरह ठुनक उठी वह. बच्चे बावले भी तैयार होकर आ गए थे।

                      गुमसुम गुमसुम बैठी ही थी कि दरवाज़े पर दस्तक हुई।  अब कौन आया ! देखा, बरसों पुरानी दोस्त "कीर्ति" खड़ी थी, हर पहली बारिश,  सावन की तरह झूम के  दरवाज़े पर आ जाती थी, घर के कड़े पहरे और काम काज सबके बीच से गोटियां जमाती ऐसे उड़ा ले जाती कि कोई चूँ  भी न करे , गांधी हॉल के झूलों, सराफे की चाट, और 'रीगल' की एक मूवी के बीच , हर पहली बारिश का पहला दिन यादगार बना लेते थे हम दोनों और कम्बख़्त गाजर मूली की तरह झूठ बोल, मुझे वापिस दादी अम्मी के पास जमा भी करा जाती थी। 

" नीचे कार खड़ी है चल! " उसका वही अंदाज़ 
 नहीं यार! अब ससुराल से ऐसे कैसे पॉसिबल है..... मैं वही सहमी सहमी।

" अंधी! तुझे दिखता नहीं अगस्त आ गया, पूरा इंदौर  सूखा है , जानती है क्यों ! सब तेरी वजह से!  मायके आ, मुझसे नही मिली!! सज़ा है उसकी।   अरी कमबख़्त !  मेरा नहीं मौसम का तो लिहाज़ किया होता! 
अरी दो सहेलियां न मिले तो बारिश भी नहीं होती. डालो बच्चों को गाड़ी में, मेरे बच्चे तो मैं नानी के पास जमा करा आयी हूँ" 

" पर बच्चे!  उनके अब्बू ! उनसे क्या कहूँगी मैं !" मेरे समझ में नही आ रहा था। 

" ओ  हरीश-चन्द्र! मेरे बच्चोँ के साथ खेलेंगे तेरे बच्चे! अभी ही नया झूला लगाया है अम्मा की छत पे. और तू तो मेरी देवरानी को खून देने जा रही है कौनसा सराफे की चाट खाने जा रही है !" उसने एक आँख दबा कर मुझे मुस्कुरा कर देखा। मैं  धक धक होते दिल से गाडी मैं  बैठी; कमबख़्त  ऊंचे सुरों में 
गा  रही थी : " मोहब्बत बरसा देना तुम सावन आया है…। " 

7 टिप्‍पणियां:

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

रोचक और बहुत बढ़िया भी....

lori ने कहा…

shukriya Monika ji :)

अनूप शुक्ल ने कहा…

बहुत प्यारा लेखन।

lori ने कहा…

shukriya Anup ji!

Dayanand Arya ने कहा…

आपकी कहानियों को पढ़ कर नीलेश मिश्रा याद आ जाते हैँ । कहानी को पढ़ कर लगा कि बस इत्ती सी़़़ पर आगे बढ़ाने पर खूबसूरती चली जाती ।

विभा रानी श्रीवास्तव ने कहा…

आपकी लिंक चर्चा के लिए चुनी हूँ

Unknown ने कहा…

Mazaaa aajate he ap ki kahanioo me toh lori ji